प्रिय सर…
कभी-कभी मन को लगता है, जैसे वह किसी और तराज़ू पर तौला जा रहा हो।
अजीब बात है—इन दिनों दिल हल्का और जेब थोड़ी भारी लगने लगी है।
लगता है कोई अनजानी हवा मेरे नाम का दरवाज़ा खटखटा कर पूछ रही है, “चलें?”
और मैं भी, पता नहीं क्यों, उसकी हाँ में हाँ मिला दे रहा हूँ।
यहाँ सब कुछ सामान्य ही था—फाइलें रोज़ की तरह ऊबती थीं, प्रिंटर रोज़ की तरह चिड़चिड़ाता था,
और मैं… मैं रोज़ की तरह मुस्कुराता था, जैसे मुस्कुराने की ड्यूटी भी मेरे जॉब-डिस्क्रिप्शन में लिखी हो।
कभी-कभी लगता था हम सच में एक परिवार हैं—वही परिवार जहाँ स्नेह कम, सलाह ज्यादा बाँटी जाती है,
और जहाँ सफलता कभी योग्यता से नहीं, किसी और की नज़रों की चमक से तय होती है।
मैंने भी सीख लिया था ये घर-परिवार वाले नियम—चुप रहना, मुस्कुराना,
और अपने ही विचारों को किसी और के नाम तिलक लगाते देखना।
पर सर, ज़िंदगी कब तक rehearsal माँगेगी? कभी न कभी तो असली मंच पर जाना ही पड़ता है।
और कल जब एक नई जगह से हल्की-सी दस्तक आई, तो पता चला कि मेरे भीतर की कीमत
शायद यहाँ लिखे appraisal से बड़ी है—इतनी बड़ी कि मेरी खामोशी तक कहीं और ज़्यादा गूँज पैदा करती है।
मतलब ये नहीं कि मैं नाराज़ हूँ, और न ये कि मैं शिकायत लेकर जा रहा हूँ।
बस यूँ समझ लीजिए—मेरे नाम का कैलेंडर अब यहाँ की दीवार पर अटका हुआ नहीं लगता।
और मेरी शाम की चाय किसी दूसरी कैंटीन में ज्यादा मीठी होने लगी है।
तो सर, मैं जा रहा हूँ—या कहूँ तो थोड़ा-सा बिक गया हूँ—
पर वैसा बिकना नहीं जो सस्ता कहलाए। बिल्कुल नहीं।
यह तो बस वो बिकना है जहाँ किसी ने पहली बार मेरी असली कीमत पढ़ ली।
आपका वही व्यक्ति,
जो बोलता कम था, पर काम उसकी चुप्पी की भी भाषा समझता था।
