वो घुटन जो किसी को दिखाई नहीं देती

an sad girl sitting in dark room

कभी-कभी जीवन बिल्कुल सामान्य दिखाई देता है, जैसे सब कुछ अपनी जगह पर है—लोग, काम, बातें, रिश्ते, ज़िम्मेदारियाँ। पर भीतर कहीं एक हल्की-सी बेचैनी, एक अनकही सी घुटन धीरे-धीरे आकार लेती रहती है। यह घुटन इतनी चुप होती है कि बाहर की दुनिया उसे कभी महसूस नहीं कर पाती, लेकिन हमारे भीतर वह एक पूरे आकाश जितनी भारी होती जाती है। ऐसा लगता है जैसे मन किसी तंग कमरे में कैद हो गया हो, जहाँ हवा तो है, पर साँस नहीं। चारों तरफ आवाज़ें हैं, पर हमारे अंदर एक अजीब-सी ख़ामोशी स्थिर होकर बैठ जाती है।

यह घुटन किसी एक वजह से नहीं जन्म लेती। कई बार यह कई छोटी-छोटी बातों से बनती है—दबे हुए शब्द, अधूरी बातचीतें, मन में रह गई चोटें, अपनों की उम्मीदें, और उन उम्मीदों को पूरा न कर पाने का दबाव। कभी यह घुटन उन पलों से आती है जब हम सबके बीच रहकर भी अकेले महसूस करते हैं। कभी यह इसलिए बढ़ती है क्योंकि हम अपनी भावनाओं को खुलकर कह नहीं पाते, डरते हैं कि कहीं कोई गलत न समझ ले। और कभी यह उस गहरी थकान का परिणाम होती है जिसे हम खुद भी स्वीकार नहीं करते, क्योंकि ज़िन्दगी ने हमें सिखा दिया है कि 'सब ठीक है' कहना ही सबसे आसान बहाना है।

दिल के भीतर यह घुटन एक धीमी आग की तरह जलती रहती है। बाहर हम हँसते हैं, काम करते हैं, बातें करते हैं, सब संभालते हैं—पर भीतर मन चुप होकर खुद से लड़ता रहता है। कभी ऐसा लगता है जैसे हमारे भीतर बहुत कुछ इकट्ठा हो गया है जिसे किसी से कहा ही नहीं जा सकता। हम जानते हैं कि बोल देने से शायद हल्का महसूस होगा, लेकिन हर बार शब्द गले तक आकर किसी अदृश्य दीवार से टकराकर वापस लौट जाते हैं। हम इतने आदी हो जाते हैं दर्द छुपाने के कि एक दिन यूँ ही अचानक किसी शाम बैठकर महसूस होता है कि हम खुद को कब खोने लगे, पता ही नहीं चला।

घुटन का सबसे कठिन हिस्सा यह है कि यह अक्सर दिखाई नहीं देती। कोई पूछे तो हम सहजता से मुस्कुरा देते हैं, “हाँ, मैं ठीक हूँ।” पर यह मुस्कान केवल दुनिया के लिए होती है। भीतर तो बहुत सारी परतें होती हैं—थकान की, डर की, उलझनों की, उन सवालों की जिनका जवाब हमें खुद नहीं पता। कई बार रात को लेटे-लेटे मन इतना भारी हो जाता है कि नींद आँखों के पास आकर लौट जाती है। दिल कहता है कि हमें रो लेना चाहिए, पर आँखें भी जैसे थक चुकी होती हैं। और फिर हम खुद को समझाते हुए वही घुटन अगले दिन फिर साथ ले जाते हैं।

कुछ घुटनें यादों से भी जन्म लेती हैं। वे यादें जिन्हें हम भूलना चाहते हैं, पर वे दिल के किसी कोने में अटकी रहती हैं। लोग आगे बढ़ने की बात करते हैं, पर कुछ चीज़ें आगे नहीं बढ़ने देतीं। वे अपने साथ एक खामोश दर्द लाती हैं—जो चीखता नहीं, बस भीतर-भीतर चुभता रहता है। और धीरे-धीरे हम उस दर्द को भी अपने जीवन का हिस्सा मानकर जीने लगते हैं।

कभी यह भारीपन इसलिए होता है क्योंकि हम बहुत कुछ अपने दिल में जगह दे देते हैं—लोगों को, उम्मीदों को, बातों को, गलतियों को, पछतावों को। हम इतनी जगह बाँटते-बाँटते खुद के लिए जगह ही भूल जाते हैं। और जब मन थककर किसी कोने में बैठना चाहता है, तो उसे कोई कोना मिलता ही नहीं। यही घुटन है—जब अपने ही भीतर जगह कम पड़ने लगे।

पर इस घुटन की एक सच्चाई यह भी है कि इसे कोई और नहीं समझ सकता, चाहे वो हमसे कितना भी करीब क्यों न हो। कोई बाहरी शब्द, कोई सलाह, कोई समझाइश इस खालीपन को भर नहीं सकती। क्योंकि यह भावनाएँ बाहरी नहीं, बहुत भीतर की होती हैं। हम ही जानते हैं कि हम किन बातों से टूटे, किन बातों से डरे, किन बातों से थके। इसलिए हर बार जब घुटन बढ़ती है, मन चुपचाप अपने ही अंदर सिमट जाता है।

और यही वह हिस्सा है जहाँ हम अपने जीवन की सबसे गहरी सच्चाइयों को महसूस करते हैं—कि कभी-कभी दर्द का सिरा किसी और के हाथ में नहीं होता। हम खुद के साथ बैठकर ही उसे समझ सकते हैं। कभी हम उस घुटन को स्वीकार कर लेते हैं, कभी उसे लिख देते हैं, कभी उसमें खो जाते हैं, कभी उससे उभर आते हैं। लेकिन जो भी होता है, वह भीतर ही होता है—शोर बाहर नहीं, चुप्पी अंदर होती है।

अगर तुम भी कभी ऐसी घुटन महसूस करते हो, तो यह कमजोरी नहीं है। यह इस बात का संकेत है कि तुम्हारा दिल ज़िंदा है, महसूस करता है, गहराई में जाता है। हर संवेदनशील इंसान के भीतर यह घुटन रहती है—क्योंकि जो दिल गहराई से महसूस करता है, वह चुप होकर टूटता भी है। और यह टूटना कोई तमाशा नहीं, बस एक शांत प्रक्रिया होती है… बहुत निजी, बहुत गहरी।

शायद इसीलिए, कुछ घुटनें कभी पूरी तरह खत्म नहीं होतीं। वे बस थोड़ी हल्की हो जाती हैं, जब हम खुद को थोड़ा समझते हैं, थोड़ा सुनते हैं, थोड़ा जगह देते हैं। बाकी… मन अपने समय पर अपने घाव खुद भरना जानता है। तब तक वह बस हमारे भीतर धीरे-धीरे साँस लेता रहता है—कभी भारी, कभी हल्का… पर हमेशा सच।

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